Wednesday, November 11, 2015

लेहरें

"कोलकाता में हुगली नदी में  दोस्तों के साथ नाव की सवारी करते हुए नदी में हिचखोले खाते लहरों को देखा ,लेहरें जो आज़ाद थी मानो हमारे बचपन की नुमाईंदगी कर रही थी और अनायास ही चल उठी ये कलम कहने को ये बातें "

लेहरें कुछ कह रहीं थी
ठहरने की कोई गुंजाईश न थी
बस बढ़ते जाना था
साहिल की ओर
कुछ का छूट जाना था
तो कुछ नए का मिल जाना
हम तो बस कश्ती में बैठे थे
बस चल रहे थे
बाकियों के साथ बाकियों की तरह
पर लेहरें भिन्न थी
वो आज़ाद थी
कोई ठौर नहीं था
जब मन करता लहरा उठती
और कभी अपनी अठखेलियों
का आनंद लेने बिलकुल शांत
होकर विचार करती
मैं सोच में था
ऐसा तो मेरा बचपन था
बिलकुल ऐसा ही चंचल
ऐसा ही  मदमस्त
अफ़सोस ! बचपन तो बीत चूका था'
या यहीं कहीं दुबक कर बैठा था
मेरे ही अंदर गुमसुम गुमनाम
अचानक किसी ने मुझपर पानी फेंका
बोला क्या कर रहे हो
मैंने भी नदी का पानी उसपर मारा
बोला बचपन जी रहा हूँ।
©युगेश
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Thursday, September 3, 2015

बोल उठी यादें मेरी

मेरी यादें अक्सर मुझसे कहती हैं
तेरी यादों के लिए वो तरसती हैं
कल चल रहा था बाग़ में बस यूँ ही भटकते
पूछ बैठे फूल आखिर क्यों हो खोये रहते
कुछ कह न पाया कुछ न कहना चाहा
बस दबी सी मुस्कराहट हीं थी
और बोल उठी यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
आज फूल हांथों में
कल हाँथ तेरा था
क्या खूबसूरत थी
क्या रंग सुनहरा था
महताब की मोहताज़ शायद चांदनी होगी
पर इस दिल की कोठी बस तुझसे ही रोशन थी
और बोल उठी  यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
सुन रखा था लोगों से की प्यार सच्चा है
तुझसे मिलकर जान पाया सच्चाई कितनी थी
इस दिल के घने जंगलों को चीरती
जो झिलमिल सी रौशनी थी
एहसास होता आज मुझको
तेरी ही रेहमत थी
और बोल उठी यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
क्या कहना चाहा,क्या कह न पाया
ये बातें ही ओझल थी
जिसे देखकर धड़कन बड़ी
वो तू थी पगली लड़की
मुखौटा मुस्कराहट का चेहरे पे रक्खा था
भावनाओं का शैलाब जिसने रोक रक्खा था
जहाँ तू बढ़ चली आगे वो राह तेरी थी
और बोल उठी यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
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Sunday, August 30, 2015

तो शायद प्यार ना होता

बड़ा मुश्किल है कहना
पर वो बोल रही थी
जो इतना आसान होता
तो शायद प्यार ना होता/
मुक़र्रर की थी मैंने
अगले हफ्ते की तारीख़
इतने दिनों में बोल ना सका
अब कैसे कह जाता/
बहुत हीं  मिन्नतें माँगी
मैंने उस खुदा  से
पर जो जल्दी सुन लेता
तो शायद खुदा न होता /
मैंने पूछा कब मिलोगी
कुछ बिना बोले हंस कर भाग गई
बस यही अनकहीं बातें तो हैं
वरना इंतज़ार पर ऐतबार न होता /
उसने पूछा मुझसे प्यार क्यों हुआ
मैंने कहा तुम्हे देखा तुम्हे समझा
महसूस किया,जो एकबार में हो जाता
तो शायद प्यार न होता/
वो बोल उठी बहुत बातें बनाते हो
मैंने कहा इन बातों में तुम ही तो होती हो
जो तुम ना होती
तो शायद ये बातें ना होती/
बस शर्मा उठी वो
मैंने हौले से हाँथों को पकड़ा
जो ये मासूमियत ना होती
तो शायद प्यार पर ऐतबार ना होता/

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Saturday, March 8, 2014

दोस्ती या मतलब

कह उठा कबीर कि परख दोस्ती की
दुख की घडी बतलाती है/
जो परछाई है तो साथ चलेगा
वरना ओझल सी हो जाती है/
जीवन के इस पथ पर
कुछ ऐसा भी हो जाता है/
जिसके साथ हम आगे बढ़ते
वो मोड़ नया बन जाता है/
बड़ी मुश्किल से बिखरा मन
धीरे-धीरे खुद को समेटता है/
प्रश्न पूछ कर केवल खुद से
हर बार बिखर  वो जाता है/
पर बिखर कर मन मेरा
खुद को बस ये समझाता है/
"कि मैं कल भी वही था
मैं आज भी वही हूँ /
फर्क केवल बस नज़रिये का था
बड़ी गाढ़ी दोस्ती मानी थी मैंने
पर फर्क केवल सोच का था/
बस इतनी सी भूल हुई मुझसे
मैं दोस्ती बुनता रहा
वह मतलब ढूंढ़ता रहा /"
जो समझ गया बात ये इतनी
देखो ! कितना हल्का लगता है /
असल में वह साथ नहीं
जो मतलब ढूंढा करता है /
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Friday, November 22, 2013

रजनी ! उसकी याद

कैसे कहूँ मैं ओ रजनी
उसकी याद कितना मुझे सताती है
जो  होता हूँ मैं तेरे संग
वो आँखों से बह जाती है/
                                          उसके आने के पहले
                                          मेरी गुलशन तुझसे रही
                                          और उसके आने पर भी
                                          तू ही तो बस पास रही /
मेरे सुने  उपवन में बजनेवाली उस पायल की
पहली झंकार कि तू ही तो साक्षी थी
मुझे मिली वो तेरी सौतन
 जिसकी तू अभिलाषी थी  /
                                          उस मधुर क्षण में साथ हमारे
                                          तेरा ही तो साया था
                                          रौशन हुई थी तू उस पल
                                         जो दिखा वो खूबसूरत साया था /
तूने सोचा होगा शायद
अब मैं तुझसे दूर हुआ
पर देख तेरे ही साये में
इस जोड़े को नूर मिला /
                                         याद है वो क्षण
                                         जो मैं उससे मिला था
                                         तू भी तो हरषाई थी
                                        और चाँद पूरा खिला था /
तू ऊपर से हमें देख रही थी                                  
जाने क्या खेल खेल रही थी
और नज़रें उनसे टकरायी थी
दुनिया स्थिर हमने पाई थी /
                                          मयस्सर मुझको वो हो
                                          बस केवल उसको पाना था
                                          इस प्रेम रूपी मदिरा का साकी
                                          वो पहला ही पैमाना था/
और धीरे-धीरे क्षण बीते थे
हम अक्सर ही मिल जाया करते थे
पहले तो ये संयोग हुआ
फिर मानो एक रोग हुआ /
                                         फिर वो पल भी आया था
                                         तेरा रूप सलोना पाया था
                                         मैं बातें उससे कह पाया था
                                         पाकर उसको मैं जी पाया था /
रजनी तू फिर रही पास
जो बँधा ये परिणय सूत्र खास
एक अध्याय नया फिर शुरू हुआ
मेरा सूनापन मनो दूर हुआ /
                                         खुशियों के कुछ ही पल बीते थे
                                         बरसात के शायद छींटे थे
                                         शायद उनको बेह जाना था
                                         हांथों से निकल फिर जाना था /
उस दिन तू बिलकुल काली थी
तू डरती जिससे वो वो लाली थी
दिल मेरा घबराया था
और अनहोनी का साया था /
                                         मैं जीवन से बिलकुल रूठा था
                                         मैं तो बिलकुल टुटा था
                                         और मानो एक ठेस मिला
                                         पर जीने को उद्देश्य मिला/
और उसकी निशानी मुझको जो
पापा कहके बुलाती है
वरना उसकी याद तो मुझको
हर एक क्षण तड़पाती है /
                                        और कैसे कहूं मैं ओ रजनी
                                        उसकी याद कितना मुझे तड़पाती है
                                        जो होता हूँ मैं तेरे संग 
                                        वो आँखों से बेह जाती है/

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Thursday, September 19, 2013

रेलवे टिकट

 बीते दिन थे कई
जब से होकर आया मैं घर
छुट्टी हुई थी कॉलेज में
मैं भागे-भागे पहुँचा रेलवे टिकट-घर
भीड़ बरी थी टिकेट-घर में
आठ में से खिड़कियाँ खुली थी केवल छह
पीछे मुड़ा था मैं क्यूँकि
वहाँ लिखा था भारत माता की जय
ट्रेन एक घंटे में थी
लाइनें लम्बी बड़ी थी
भीड़ देखकर लगा मानो
हमारी छुट्टी  अधर में लटकी पड़ी थी
पर फिर भी मैंने हिम्मत जुटाया
एक उम्मीद भरी लम्बी सांस लेकर
हमने भी अपनी उपस्तिथि को
सामने वाली लाइन में दर्ज कराया
भीड़ बड़ी थी सो
लाइन धीरे-धीरे चल रही थी
पर तखलीफ़ तो इस बात की थी
की आगे घुसपैठ चल रही थी
मैंने ज्यों ही आवाज़ उठाने को
अपनी आँखें तरेरी
सामने लगी पट्टी पर
मेरी नज़र पड़ी
अब घंटा बचा था आधा और
पट्टी पर लिखा था महिलाएँ एवं बुजुर्ग
अब तो हमारी हालत ऐसी थी
मानो मोर के झुण्ड में सुतुरमुर्ग
तब मैंने आगे और पीछे वालों को टटोला
उद्देश्य गलत न था
आगे-पीछे पुरुष ही खड़े थे
मैं तो सही लाइन में ही घुस था
फिर मैंने सोचा
अब क्या करूँ
खैर ! इतनो को फर्क नहीं पड़ता
तो मैं क्यूँ डरूं
फिर कानों में एक मीठी सी आवाज़ आई
पीछे मुड़ा तो देखा
एक खुबसूरत लड़की खड़ी थी
उसने कहा मेरे लिए एक
टिकट ले दीजियेगा
मेरा जवाब तो जग-जाहिर है
पर फिर भी हमने अपनी उत्तेजना को दबाया
और,धीरे से कहा - "ठीक है"
अब तक तो सब ठीक था
पर आगे मुड़ कर देखा तो
स्तिथि अजीब थी
आगे तो द्वंद चल रहा था
एक स्त्री लाइन में घुस रही थी
और एक पुरुष उसे रोक रहा था/
स्त्री ने कहा - ये महिलाओं की लाइन है
उत्तर आया बहुत देर से खड़े हैं
तभी हवालदारजी आ धमके
और कहा -  औरत हो या बूढ़े हो ?
व्यक्ति स्तब्ध था- न बोले तो टिकेट जाये
और हाँ बोले तो पुरुषार्थ  जाये /
उसके पीछे मैं ही खड़ा था
ट्रेलर देख मैं तो पहले ही डरा था
गृह-प्रेम छोड़ मैंने अपने पुरुषार्थ को गले लगाया
और लाइन छोड़ मैं तो निकल आया
अब तो देर बड़ी थी पर खुसी हुई मुझे
क्यूंकि ! अब वह लड़की लाइन में खड़ी थी/
मैंने पास जाकर पूछा -
मेरी टिकेट ले दीजिएगा /
उत्तर आया -"आमि  पटना जाक्षी /"
मैंने कहा-" आमि चन्द्रपुरा "/
पर शायद कुछ ग़लतफ़हमी थी
जो उसने कहा वह वो न कहकर
कुछ और कहना चाहती थी/
मैंने खुद को संभाला कहा कुछ
समझिये फिर कुछ कहिये
मुझ पर मानो पहाड़ सा टूट पड़ा
मेरे घर जाने के कार्यक्रम को गहरा झटका लगा
फिर अंतर-आत्मा  से आवाज़ आई/
कहा- बेटा ! बेटिकट कर ट्रेन पर चढाई/
बसते को कंधे पर टाँगकर
मैंने प्लेटफार्म पर कदम जमाया
इतनी परेशानी के बाद
कुछ तो अच्छा दिखे मैंने
चारो तरफ नज़र घुमाया
पर आज तो दिन ही बुरा था
इधर-उधर देखा तो
दो-चार काले कोर्ट वाला पशु
यहाँ वहां विचरण कर रहा था /
बस फिर क्या मेरे गृह-प्रेम
पर फिर ग्रहण लग गया
और बस्ता उठाकर मैं
फिर लाइन में लग गया/
ट्रेन अब तक  स्टेशन पर आ चुकी थी
मैं टिकटघर तक पहुँच ही चूका था /
पर मेरी दुहाई काम न आई,
इधर टिकेट कटी और उधर ट्रेन ने की चढाई/
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Tuesday, August 6, 2013

शिक़ायत नहीं होती

                                       
गुस्ताख़ रही मेरी नज़रें 
तो शिकायत आपको रही /
भला आपके हुस्न के फिदरत कि 
शिकायत हमने की है कभी/
कि  बड़ी तल्क है आपकी नज़रें 
गिरती हैं शोले बनकर 
और दिल कहता है 
शिकायत नहीं होती /
कि  इस छरहरी काया के फाँस 
से छुटना आसन नही होता /
पर फिर भी देखो तो हमारा धैर्य 
कि शिकायत नहीं होती/
इतना होता तो शायद झेल भी जाता 
पर तेरी मीठी बोली रातों को 
सोने नहीं देती/
पर फिर भी दिल कहता है 
शिकायत  नहीं होती/
तेरा हौले-हौले चलना 
साँसों को रोक सा देता है/
और कमबख्त  दिल कहता है 
काश! साँसों की ज़रूरत न होती/
पर फिर भी मुझे शिकायत न होती/
और माफ़ करना अगर 
गुस्ताख रही मेरी नज़रें 
पर क्या करूँ तुम्हे देख कर 
ये भी जवान हो उठती हैं/
दुरुस्त कर देना चाहता हूँ एक बात 
की खुदा को मानने वाला हूँ 
और उसकी कारीगिरी की इनायत
 न करने की हिमाकत न होती/
बस इस कारण ही तू लाख शिकायत कर ले 
पर इस दिल को तुझसे शिकायत न होती /

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