Thursday, November 25, 2021

एक नया इंद्रधनुष

आँखों की तलहटी में
जब भर जाती हैं यादें
तो भर आती हैं आँखें
आँखें जो सवाल नहीं करती
बस ढूंढती हैं जवाब
जवाब जो सन्यासी की तरह होते हैं
बिल्कुल नंग-धड़ंग
हृदय की कोमलता से
उन्हें क्या लेना-देना
उन्हें वास्तविकता से सरोकार है
मन कई बार सच नहीं
झूठ सुनना चाहता है
जानते हुए भी कि
वो क्षण-भंगुर है
क्यूँकि उसमें होती है
आशा की किरण
जिनका इंतज़ार रहता है
आँखों की तलहटी को
जो उड़ा ले जाए
आँखों के नीर को
आसमाँ की ओर
बनाने एक नया इंद्रधनुष।
©युगेश

चित्र - गूगल आभार 
                                   
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Saturday, October 23, 2021

कहती है वो आँखों से

कहती है वो आँखों से
और देख कनखिया सुनती है
हाथ फेरती देख हवा में
जाने क्या सपने बुनती है।

अभी अभी ये रोग हुआ
या रोग पुराना लगता है
आँख खोल कर सोती है वो
कुछ नया फसाना लगता है।

दिल के तह, झाँक के देखो
जाने कितनी गहराई है
पूछे उससे बात जो कोई
बस मंद-मंद मुस्काई है।

दिल की बातें दबी ज़ुबाँ पर
और कहने से घबराई है
बिना हवा के आँचल उड़ता
कैसे चलती पुरवाई है।

तेरे इन अधरों पर तैरते
बातों को मैं तौल गया
रद्दी बिकती एक रुपए की
मैं तो बिल्कुल बे-मोल गया।

प्रेम रूप की परिभाषा
ये कोई बता क्या पाया है
तेरे मेरे बीच जो पनपा
यही, कृष्ण ने समझाया है।
©युगेश




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Thursday, July 1, 2021

आँसू

तुम्हारी आँखों से जो छलके
वो आँसू थे
मेरी आँखों में जो सूख चुके थे
वो आँसू थे
दिल जब बिखर गया
और कुछ कह न पाया
आँखों से रिसकर बतलाया जिसने
वो आँसू थे
जब खुशी बड़ी हो गयी
और दुख जब बड़ा हो गया
पलकों से जो हर बार छलके
वो आँसू थे
कृष्ण ने
पानी परात बिन छुए
धोए जिनसे पाँव सुदामा के
वो आँसू थे
आँसू को परिभाषित कैसे करूँ
कैसे बतलाऊँ वो क्या हैं
जब कोई कुछ नहीं कहता
तो आँसू कहते हैं
वेदना, विश्वास, विनोद
वो अविरल बहते हैं
मानव जब महावीर बन
भगवान हो जाता है
पानी अपना उच्चतम स्तर
आँसू बन पाता है।
©युगेश

चित्र - गूगल आभार 


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Saturday, June 19, 2021

पिता

बचपन की अठखेलियों में
चुनकर माँ की काया को
मैं देख न पाया हमें बचाए
बाबा की उस छाया को।
लड़खड़ाए चले दो पग
पर सैर साँझ का कर आए
जो झुके न कोई और जगह
बाबा झुके पीठ पर बैठाए।
सख्त जान वो पड़ते थे
मूँछों पर वो भरते दम
खींच उन्हें मैं दौड़ लगाता
उछल-उछल कभी कदम-कदम।
शौक मेरे खूब निराले थे
मिट्टी पर गुलाटी मारे थे
कंधे पर बिठला कर वो
क्या खूब हमें सँवारे थे।
छुटकन-छुटकन मैं लपक-लपक
चौखट से झाँका करता था
बाबा की आहट को मैं
कितना पहचाना करता था।
दिनभर की मेहनत
माथे का पसीना पोंछकर
सहज वो मुस्काते थे
हाथों में ले मुझे चूमकर।
रात माँ के आँचल में
मैं ढूँढता सितारे और चांद
बाबा ने रखा हमारे ऊपर
वो पूरा आसमाँ था बांध।
माँ प्यारी और पिता कठोर
ऐसा कहता कौन था
जिस गागर से प्रेम उठेलती
उसे भरता कौन था?
जेबें भला कौन भरता है
पैसे कहाँ से आते हैं
मेरी हर जरूरत को हाँ
अपनी को न, क्यूँ कह जाते हैं।
बहुत सी बातें हैं जो
अब तक समझ न पाया
बाबा एक पहेली हैं
मैं हल न कर पाया।
आज बड़ा हो गया हूँ
लोग समझदार कहते हैं
पर कैसे बतलाऊँ वो क्या हैं
जिन्हें हम पिता कहते हैं।
©युगेश

चित्र - गुगल आभार


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Monday, May 17, 2021

मेरे घर मेरी भाभी आई।

तोड़ वेदना की सांकल को
गर्मी में जैसे बरखा आई
घर की चौथी नींव जोड़ने
मेरे घर मेरी भाभी आई।

झरोखे से झांक रहा है आलय                       
यूँ सजे-धजे से आया कौन
माँ के चेहरे पर इंद्रधनुष सा
आह्लाद बनकर यूँ छाया कौन।

लुटा रही वो हाथों से ममता
कोई कसर नहीं रह जाती है
उन्माद सा क्यूँ है आँखों में
वो बेटी पाकर इतराती है।

नहीं मिलन ये दो लोगों का
कितनों का जुड़ता नाता है
वृक्ष-कुटुंब सघन तब होता
जब कोई बाहें फैला अपनाता है।

बाट जोहती घर की तुलसी
आगे इसको सींचे कौन
सिंदूर-रोली मंदिर की शोभा
घर की शोभा बोलो कौन।

वचन दिए जो सात हैं उसने
भैया मेरा निश्चय ही निभाएगा
आपकी आँखों का हर आंसू
उसकी आँखों से होकर जाएगा।

देख रहे हैं वो भी सब
उनका मन भी हरषाया है
माँ के हाथों से पिता ने
कुशलक्षेम भिजवाया है।
©युगेश 




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Friday, April 16, 2021

*पृथा और निष्प्राण कर्ण*

निस्तेज हुआ था सूर्य तथापि
धर्म विजय का प्रणेता था
जो तीर चीर गया कंठ को
क्या? साधारण वो योद्धा था।
फटा उर कुंती का तब
पृथा परस्पर प्रस्फुटित हुई
कर्ण कैसे पूछे धर्मक्षेत्र से
ममता क्यूँ कुंठित हुई।
न कवच था न कुंडल थे
पर तेज़ सूर्य के जैसा था
रोक सके न कोई उसको
क्यूँ, धरती माँ ने रोका था।
नियति के कुचक्र में
कैसे कर्ण फँस गया
धरती माँ का हृदय फटा
पहिया वहीं पर धँस गया।
विजय अमृत था सदृश
किसी के चेहरे पर ग्लानि
पाण्डव उत्सव को आतुर
कुंती के आँखों पानी।
आँखों के सामने पिटारी
ठहर गयी पृथ्वी सारी
उस भाग्यहीन की किलकारी
और पृथा ठहरी बेचारी।
पर आज वेग में ओज था
माँ के सर एक बोझ था
आँसू रहते न आँखों में स्थिर
विष्मीत धर्मराज युधिष्टिर।
पर कोई उन्हें न टोक सका
माँ को कोई न रोक सका
वात्सल्य जीवन भर का
काला पड़ गया था मनका।
क्षत-विक्षत वो पड़ा रहा
मानो ज़िद से वो अडा रहा।
©युगेश
.                         चित्र - गूगल आभार

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Friday, March 12, 2021

आँखों का फ़ितूर

मेरी आँखों का फ़ितूर है
या कोई तो ज़रूर है।
ये दिन में शाम क्यूँ हुई
ये ज़ुल्फ या धतूर है।
हवा बही हर ओर से
झटकी लट जो ज़ोर से।
दिन को ढलने दो यहीं
बैठो जरा ग़ुरूर से।
थक जाने दो शाम को
अलसाए आसमान को।
ये तारे टिम-टिमाएँगे
ये आसमाँ सजाएँगे।
ये रात जगमगाएगी
लेकर चुनर हुज़ूर से।
बैठो जरा ग़ुरूर से
बैठो जरा ग़ुरूर से।
पंछी क्यूँ ठहर गए
दिन गया,पहर गए।
न टोह उनको आज की
न किसी के काज की।
आह भर रही है चांदनी
मद्धम हो रही हवा।
मैं पास उसको खींचता
वो खीझती जरा-जरा।
रात हुई तो शोर है
देखो जोर-जोर है।
वो बस मुझको देखती
मैं देखता, कोई और है?
जुगनू चमकने लगे
चुनर आँखों से सरकने लगे।
शाम आग़ोश में रात की
उसने जाने की बात की।
प्रेम का अर्थ गूढ़ है
मिलना-बिछड़ना जरूर है।
समझ सके तो प्रेम क्या?
जो ना समझे तो प्रेम है।
©युगेश 

                                                       

चित्र - गुगल आभार

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