Friday, December 29, 2017

सिपाही साहिबा

#slapfest
आज न्यूज़ देखते समय नज़र टिकी एक न्यूज पर।बहुत ही खास थी।पढ़ा तो पता चला धौंस दिखाने के चक्कर में एक नेत्री को एक सिपाही साहिबा ने दिन में तारों की सैर करवा दी।अच्छा लगा पढ़कर और सिपाही साहिबा की भी तारीफ करने को जी चाहा -


नेत्री जी अड़ गईं
एक तमाचा तपाक जड़ गईं
सोचा सियासत का जोर है
बेचारा!कानून कितना कमजोर है
और ये सिपाही
आखिर सिपाही ही तो है
चित्र-गूगल आभार 
उसके पास तो केवल डंडा है
जो बामुश्किल चलता है
मेरे पास लोकनायिका होने का गौरव है
जो हर जगह अकड़ता है
सिपाही महिला ही थी
देखा जाए तो ये अच्छी बात थी
अगर पुरुष होता तो
शायद,शायद दो राय होती
मीडिया पता नहीं किसकी
मुखातिब होती
Feminism से भैया मुझे
थोड़ा डर सा लगता है
लेकिन lady feminist को सिपाही
के रूप में देख सुकून सा मिला
कोई अड़चन नहीं, कोई बाधा नहीं
और!तपाक एक चांटा नेत्री के गाल पर
आह!लहलहा उठा वातावरण
जैसे को तैसा
शायद न सोचा होता ऐसा
अचम्भा,अद्धभुत,हाय
कानून नहीं इतना असहाय
सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी
आज अब और यहीं घटी।
©युगेश
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Saturday, December 16, 2017

वो गुजर गए ,हम ठहर गए

जरा वो गुजर गए
हम ठहर गए
जो पहर गए
अरे कहर गए
जो झपकी पलकें
कुछ कह वो गए
उद्वेलित था दिल
आभास हुआ
 चित्र - गूगल आभार 
कुछ लहर गए
जो अलके थे चेहरे पर
आहिस्ता थे वो ठहर गए
एक बोसा हवा का यूँ आया
क्या कहूँ गज़ब वो मचल गए
नक्स था कुछ यूँ उनका
जमीं मचल गयी
हम ठहर गए
रोक सके जो सूरज को
जुल्फें जो बिखरी
तो देखा हमने सहर गए
हल्की उनकी अंगड़ाई को
कमर जो उनकी बलखाई तो
हवा का झोंका तो आता था
देखा हमने रुख बदल गए
तेरे यौवन की चित्कारी को
ये पायल की झनकारी को
कुछ मचल गए
कुछ अकड़ गए
चेहरे पर रंजित होती आभा को
देख कर भानु ठहर गए
तेरे मुख की सुरभित वाणी को
जिन्हें बस सुनना था
सब बेहक गए
फिर सोच सोच जो पल बिता था
वो आभा-मंडल जो जीता था
फिर जो कुछ पहर गए
क्या कहूँ मित्र,क्या कहर गए।
©युगेश
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पापा!मैं विदा लेना चाहती हूँ।

बेटी जो रुखसत हुई
तो ये बादल भी गरजने लगे
पिता ने कहा बेटी अभी तो जाती है
इन आँशुओं को थोड़ा ठिठके रहने दे
ये जो अंसुवन की माला है
कभी घुटनों पर पड़ती थी
आज जो सीने पर पड़ी
तब यकीन आया
बेटी अब बड़ी हो चली
मैं भी जो रो दूँ
तो बच्ची को कौन सँभालेगा
चित्र-गूगल आभार 
थोड़ी देर और आँसू
मेरी आँखों में रह लेगा
मुझसे जो वो गले लगती है
मैं चुप हो जाने को कहता हूँ
वो एक एक कर सभी से मिलती है
शायद मुझे थोड़ा रूखा समझती है
आँसू शायद सभी ने बहाया था
एक शायद मैं ही था
जो उन्हें आँखों में समेट पाया था
दायित्व थे कुछ,मजबूर नहीं था
वो बस बेटी नहीं थी मेरा
वो मेरा गुरुर था
मैं हीरो था उसका
सो कमजोर कहाँ हो सकता था
और वो विदा हो चली
अब अश्रुजल चल पड़े थे
मैं एकांत कमरे में था
एक सख्त पिता की कमजोरी
आँसूओं का रूप ले चली थी
कि एक हाँथ मेरे कन्धे पर था
मैंने झट से आँसू पोंछे
पीछे मेरी गुड़िया खड़ी थी
कहा-गुड़िया अब बड़ी हो चली
आपकी कठोरता का पूरा आभास है मुझे
मैं भी आपको थोड़ा समझने लगी
सो ठिठक गयी थी
जो मेरे आँसू पोछते आये थे आप मेरे
आज आपके पोंछना चाहती हूँ
पापा!मैं आप सी होना चाहती हूँ
पापा!मैं विदा लेना चाहती हूँ।
©युगेश
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