Friday, April 16, 2021

*पृथा और निष्प्राण कर्ण*

निस्तेज हुआ था सूर्य तथापि
धर्म विजय का प्रणेता था
जो तीर चीर गया कंठ को
क्या? साधारण वो योद्धा था।
फटा उर कुंती का तब
पृथा परस्पर प्रस्फुटित हुई
कर्ण कैसे पूछे धर्मक्षेत्र से
ममता क्यूँ कुंठित हुई।
न कवच था न कुंडल थे
पर तेज़ सूर्य के जैसा था
रोक सके न कोई उसको
क्यूँ, धरती माँ ने रोका था।
नियति के कुचक्र में
कैसे कर्ण फँस गया
धरती माँ का हृदय फटा
पहिया वहीं पर धँस गया।
विजय अमृत था सदृश
किसी के चेहरे पर ग्लानि
पाण्डव उत्सव को आतुर
कुंती के आँखों पानी।
आँखों के सामने पिटारी
ठहर गयी पृथ्वी सारी
उस भाग्यहीन की किलकारी
और पृथा ठहरी बेचारी।
पर आज वेग में ओज था
माँ के सर एक बोझ था
आँसू रहते न आँखों में स्थिर
विष्मीत धर्मराज युधिष्टिर।
पर कोई उन्हें न टोक सका
माँ को कोई न रोक सका
वात्सल्य जीवन भर का
काला पड़ गया था मनका।
क्षत-विक्षत वो पड़ा रहा
मानो ज़िद से वो अडा रहा।
©युगेश
.                         चित्र - गूगल आभार

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