Sunday, December 23, 2018

शनाख़्त मोहब्बत की

शनाख़्त नहीं हुई मोहब्बत की हमारी
जज़्बात थे,सीने में सैलाब था
पर गवाह एक भी नहीं
लोगों ने जाना भी,बातें भी की
पर समझ कोई न सका
समझता भी कैसे
अनजान तो हम भी थे
चित्र - गूगल आभार 
एक हलचल सी होती थी
जब भी वो गुज़रती थी
आहिस्ता आहिस्ता
साँसें चलती थी
एक अलग सी दुनिया थी
जो मैं महसूस करता था
मेरी दुनिया में उसके आने के बाद
आज जो कठघरे में खड़ा था
सबूत दफ्न थे मेरे जिगर में
सियासत उसी की थी
काज़ी भी वही
फिर फैसला मेरा कहाँ था
एक समुद्र मंथन मेरे सीने में भी हुआ
फर्क बस ये था मैंने दोनो छोर
उसी के हाँथों में दे दिए थे
अब आब-ए-हयात निकले या ज़हराब
अब सब जायज था
सब कबूल था।
©युगेश
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एक कविता मेरे नाम

बात तब की है
जब मैं धरती पर अवतरित हुआ
चौकिए मत
चित्र - गूगल आभार 
हमारा नाम ही ऐसा रखा गया
युगेश अर्थात युग का ईश्वर
अब family ने रख दी
हमने seriously ले ली
खुद को बाल कृष्ण समझ बैठे
खूब मस्ती की
पर गोवर्धन उठा नहीं पाए
पर पिताजी ने बेंत बराबर उठा ली
और कृष्ण को कंस समझ
गज़ब धोया
मतलब सीधा-साधा धोखा
नाम युगेश रख दिया
इज्जत जरा भी नहीं की
फिर हमने कहीं पढ़ा
नाम में क्या रखा है
इस बात ने और पिताजी की डाँट ने
हमारा concept ठीक कर दिया
तब से हम धरती पर
साधारण मनुष्य की तरह
विचरण कर रहे हैं।
©युगेश

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