Monday, April 20, 2020

उदर उपद्रव

बम-बम भोले बम-बम भोले
पेट मेरा खाये हिचकोले
किसने बो दी चरस यहाँ पर
इधर डोले कभी उधर डोले
शंख नाद की कर्कश ध्वनि
धीरे-धीरे और हौले-हौले
कोलाहल जो मचा उदर में
ना पच पाए पूरी और छोले
उदर था पर उदार नहीं वो
मैंने ये भी डाले वो भी डाले
माँ की आज्ञा सर-आँखों पर
बेटा ये भी खाले वो भी खाले
प्रदूषण हमेशा अप्रिय मुझे पर
दागे मैंने रह-रहकर गोले
Relay दौड़ भाँति मैं भागा
तोड़ शौचालय के ताले
जाने क्या की पाप थी मैंने
बदला ले रहे हर एक निवाले
उदर स्वस्थ होगा जब तब
माँ बोलेगी भोग लगाले
समर शेष है जब तक तबतक
गीले चावल जठराग्नि हवाले
हो जाऊँ दण्डवत प्रभु मैं
संजीवनी मिले हनुमान बचाले।
©युगेश
चित्र - गूगल आभार

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Tuesday, April 14, 2020

तस्सवुर में तेरे हैं, बताएँ क्या

हवाएँ, सदाएँ ,दुवाएँ क्या
तस्सवुर में तेरे हैं, बताएँ क्या
तेरे पलकों पे आ ठहरी चाँदनी
चाँद से ये दिल्लगी, बताएँ क्या
न देखा कभी सजते उसे
सजदे में उसके हैं, बताएँ क्या
बिखरी जुल्फें, बादल उमड़ते हैं
बे-आब हम डूब गए, बताएँ क्या
पर हैं उसके,फैलाना चाहती है
समाज की पाबंदियाँ, बताएँ क्या
उसके हर सवाल का जवाब हो जाऊँ
हसरत ऐसी भी, बताएँ क्या
खामोशी जब भी बसे तेरे सीने में
हम शोर हो जाएँ, बताएँ क्या
तेरे बालों का वो लट हो जाउँ
तू हटाए, फिर आए, बताएँ क्या।
©युगेश
चित्र - गूगल आभार


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Friday, April 3, 2020

महामारी और मज़बूरी

COVID-19 भारत में एक महामारी बनकर उभरी।जहाँ एक भय का माहौल हो गया वहीं कुछ नामचीन,मज़हबी इसे आँखमिचौली का खेल समझ बैठे।हालाँकि उनका खयाल खूब रखा गया।विदेशों से नागरिकों को विशेष विमानों से लाया गया।ऐसे में देश में एक ऐसा वर्ग था जिसकी सुधि लेनेवाला कोई नहीं था।वह वर्ग था "मज़दूर"।जब आक्रोश बढ़ा तब सरकारें, लोग आगे बढ़कर आए।पर इस बीच कई मज़दूर इस महामारी के दौर में "भुख" की चीर बीमारी के आगे नतमस्तक हो गए क्योंकि वो "मज़दूर" थे शायद इसलिए "मज़बूर" थे......


एक रोज़ थक के चूर मैं
लेटा जो था जमीन पर
शोर मची वो कह रहे
फैला है कुदरत का कहर
अब डर नहीं सताता मुझे
पेट भरना जैसे एक समर
मैं आज फिर सोया रहा
आँतों को अपनी चापकर
ऐलान हुआ बंद हुई फ़िज़ा
कैसे कटे अब रहगुज़र
"मज़दूर" था "मज़बूर" मैं
ठोकरों का दस्तूर मैं
न मैं नामचीन न मज़हबी
बस भूखा एक मज़दूर मैं
जब बंद सारे रास्ते
तरसते अपनों के वास्ते
मैं मग पैदल ही चला
एक आस को तलाशते
मीलों का था सफर
चेहरे आँखों में टटोलते
धूप मुझको न लगी
गाँव बच्चों को देखा खेलते
एक होड़ लोगों में बड़ी
हमारी किसी को क्या पड़ी
हम सैंकडों तादाद में है
हम आफत लगते हैं बड़ी
सोचता मैं और क्या
मंद साँसे फिर हुई
एक आह ली फिर हारकर
अपनों से माफी माँगकर
धुँधला हुआ देखो सकल
हैरत हुई ये देखकर
उँगली इशारा कर रही
न खत्म होती उस राह पर।
©युगेश
चित्र - गूगल आभार

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