Saturday, June 19, 2021

पिता

बचपन की अठखेलियों में
चुनकर माँ की काया को
मैं देख न पाया हमें बचाए
बाबा की उस छाया को।
लड़खड़ाए चले दो पग
पर सैर साँझ का कर आए
जो झुके न कोई और जगह
बाबा झुके पीठ पर बैठाए।
सख्त जान वो पड़ते थे
मूँछों पर वो भरते दम
खींच उन्हें मैं दौड़ लगाता
उछल-उछल कभी कदम-कदम।
शौक मेरे खूब निराले थे
मिट्टी पर गुलाटी मारे थे
कंधे पर बिठला कर वो
क्या खूब हमें सँवारे थे।
छुटकन-छुटकन मैं लपक-लपक
चौखट से झाँका करता था
बाबा की आहट को मैं
कितना पहचाना करता था।
दिनभर की मेहनत
माथे का पसीना पोंछकर
सहज वो मुस्काते थे
हाथों में ले मुझे चूमकर।
रात माँ के आँचल में
मैं ढूँढता सितारे और चांद
बाबा ने रखा हमारे ऊपर
वो पूरा आसमाँ था बांध।
माँ प्यारी और पिता कठोर
ऐसा कहता कौन था
जिस गागर से प्रेम उठेलती
उसे भरता कौन था?
जेबें भला कौन भरता है
पैसे कहाँ से आते हैं
मेरी हर जरूरत को हाँ
अपनी को न, क्यूँ कह जाते हैं।
बहुत सी बातें हैं जो
अब तक समझ न पाया
बाबा एक पहेली हैं
मैं हल न कर पाया।
आज बड़ा हो गया हूँ
लोग समझदार कहते हैं
पर कैसे बतलाऊँ वो क्या हैं
जिन्हें हम पिता कहते हैं।
©युगेश

चित्र - गुगल आभार


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