Monday, March 26, 2018

भगत सिंह

आँखों में खून मेरे चढ़ आया था
शैलाब हृदय में आया था
जब लाशों के चीथड़ों में
जलियावाला बाग़ उजड़ा पाया था।
जब चीख उठी बेबस धरती
सौ कूख लिए हर एक अर्थी
बचपन में बचपना छोड़ आया
मैं इंक़लाब घर ले आया।
बाप-चाचा थे गजब अनूठे
निज घर देशभक्ति अंकुर फूटे
बचपन में ही छोड़ क्रीड़ा
मैं निकला किरपान उठा।
चित्र-गूगल आभार 
अपनों में तलवार जब छूटेगा
सरदार कहाँ चुप बैठेगा
तिल-तिल मरती भारत माता
नास्तिक से और न कोई पूजा जाता।
रक्तपात मुझे कुछ प्रिय न था
शमशीर उठाऊँगा ये निर्दिष्ट न था
जब असहयोग से सहयोग छूटेगा
अहिंसा पर कभी विश्वास तो टूटेगा।
दुनिया ये बिल्कुल नीरस है
आज़ादी से बड़ा क्या परम-सुख है
वो कहते मुझसे शादी को
मैं ब्याह चुका आज़ादी को।
जब एक बूढ़े पर लाठियाँ चल उठी
पता चला अहिंसा तब रूठी
आँखों में अंगार लिए
मैं चला भीषण हाहाकार लिए।
ये हृदय अग्नि तब शिथिल होगी
Scott की छाती में मेरी गोली होगी
एहसास हो जाए फिरंगी को
वक़्त नहीं लगता इमारत ढहने को।
जब निरीह का निर्मम शोषण होता
जब चारों ओर क्रन्दन होता
और हिंसा से जब आँख खुले
धर्म वही सबसे पहले।
आखिर मुझको एहसास हुआ
भगत एक कितना खास हुआ
जब हर गली भगत गर घूमेंगे
अंग्रेज़ भाग देश को छोड़ेंगे।
मन में न था कोई संशय
लाना था मुझको एक प्रलय
संसद में बम जब फूटेगा
आवाज़ देश में गूँजेगा।
जैसे बादल के छंटने पर
सूरज बस तेज़ दमकता है
वैसे बम के धुएँ के हटने पर
इंक़लाब का शोर गरजता है।
जानता था परिणाम क्या होगा
ऐसी मृत्यु से गुमनाम न होगा
जब भगत शहीद कहलायेगा
क्या लोगों में उबाल न आएगा।
अब देख भंवर क्या आएगा
मृत्यु क्या मुझको देहलाएगा
सतलज में फेंका मेरा एक एक टुकड़ा
बनकर निकलेगा एक एक शोला।
भारत माँ से बस ये विनती होगी
कि रंगा रहे मेरा ये बासन्ती चोला।
©युगेश
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Saturday, February 17, 2018

कर्ण

रोष मस्तक पर जब रंजीत होता
विश्वास जो छल से खंडित होता
अनल सा तपता जब ये मन
धिक्कारा जाए जब कुन्दन।
जब सूरज का कोप प्रखर होता
जब तोड़ तुझे कोई तर होता
न प्यास बुझाये उस पानी को
कानों को चुभती हर एक वाणी को।
शूरवीरों से वो भरी सभा
चित्र -गूगल आभार 
मछली की आँख न कोई भेद सका
चढ़ा प्रत्यंचा गाण्डीव पर
लक्ष्य चले भेदने उसके कर।
बढ़ गयी सभा की उत्कंठा
बढ़ गयी द्रौपदी की चिन्ता
शर्त स्वयंबर का फिर बदल गया
कर्ण जीत,जाती से तब हार गया।
पूछा मुझसे हस्ती मेरी क्या है
राजकुमारी चाइए,पर राज्य तुम्हारा क्या है
दुर्योधन में मैंने,तब एक मित्र पाया था
वो मेरे हित अंगेश मुकुट तब लाया था।
कहते मुझसे लोग यहाँ
मैंने तो अधर्म का साथ दिया है
लेकिन मुझको बतलाये
इस दानवीर को तब किसने दान दिया है।
धर्म की बातें करने वाले
तब आँख मूंद क्यूँ लेते हैं
कर्ण के अमूल्य कवच और कुण्डल
इंद्र धोखे से माँग जब लेते हैं।
माता के मातृत्व में
मैंने तब जाकर छल पाया
जब अपने बेटों के प्राण माँगने
पहली बार मुझमें पुत्र नजर आया।
धर्म-अधर्म की बातें मुझको
बेईमानी सी लगती है
सबकी अपनी गणना है
थोड़ी मक्कारी सी लगती है।
धर्म कहता है मेरा
मैं निर्णय विचार कर लूँगा
लेकिन जिसने साथ दिया
उस मित्र को विश्वासघात न दूँगा।
इतिहास लिखे जो भी मुझपर
मुझे कोई रोष नहीं है
ये सुत-पूत जो रोए
इतने आँसू शेष नहीं हैं।
जीवन रणक्षेत्र है जिसका
कुरुक्षेत्र बस एक खण्ड है
विचलित न हुआ विपदाओं से
ज्ञात रहे,वो दानवीर कर्ण है।
©युगेश
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Friday, December 29, 2017

सिपाही साहिबा

#slapfest
आज न्यूज़ देखते समय नज़र टिकी एक न्यूज पर।बहुत ही खास थी।पढ़ा तो पता चला धौंस दिखाने के चक्कर में एक नेत्री को एक सिपाही साहिबा ने दिन में तारों की सैर करवा दी।अच्छा लगा पढ़कर और सिपाही साहिबा की भी तारीफ करने को जी चाहा -


नेत्री जी अड़ गईं
एक तमाचा तपाक जड़ गईं
सोचा सियासत का जोर है
बेचारा!कानून कितना कमजोर है
और ये सिपाही
आखिर सिपाही ही तो है
चित्र-गूगल आभार 
उसके पास तो केवल डंडा है
जो बामुश्किल चलता है
मेरे पास लोकनायिका होने का गौरव है
जो हर जगह अकड़ता है
सिपाही महिला ही थी
देखा जाए तो ये अच्छी बात थी
अगर पुरुष होता तो
शायद,शायद दो राय होती
मीडिया पता नहीं किसकी
मुखातिब होती
Feminism से भैया मुझे
थोड़ा डर सा लगता है
लेकिन lady feminist को सिपाही
के रूप में देख सुकून सा मिला
कोई अड़चन नहीं, कोई बाधा नहीं
और!तपाक एक चांटा नेत्री के गाल पर
आह!लहलहा उठा वातावरण
जैसे को तैसा
शायद न सोचा होता ऐसा
अचम्भा,अद्धभुत,हाय
कानून नहीं इतना असहाय
सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी
आज अब और यहीं घटी।
©युगेश
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Saturday, December 16, 2017

वो गुजर गए ,हम ठहर गए

जरा वो गुजर गए
हम ठहर गए
जो पहर गए
अरे कहर गए
जो झपकी पलकें
कुछ कह वो गए
उद्वेलित था दिल
आभास हुआ
 चित्र - गूगल आभार 
कुछ लहर गए
जो अलके थे चेहरे पर
आहिस्ता थे वो ठहर गए
एक बोसा हवा का यूँ आया
क्या कहूँ गज़ब वो मचल गए
नक्स था कुछ यूँ उनका
जमीं मचल गयी
हम ठहर गए
रोक सके जो सूरज को
जुल्फें जो बिखरी
तो देखा हमने सहर गए
हल्की उनकी अंगड़ाई को
कमर जो उनकी बलखाई तो
हवा का झोंका तो आता था
देखा हमने रुख बदल गए
तेरे यौवन की चित्कारी को
ये पायल की झनकारी को
कुछ मचल गए
कुछ अकड़ गए
चेहरे पर रंजित होती आभा को
देख कर भानु ठहर गए
तेरे मुख की सुरभित वाणी को
जिन्हें बस सुनना था
सब बेहक गए
फिर सोच सोच जो पल बिता था
वो आभा-मंडल जो जीता था
फिर जो कुछ पहर गए
क्या कहूँ मित्र,क्या कहर गए।
©युगेश
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पापा!मैं विदा लेना चाहती हूँ।

बेटी जो रुखसत हुई
तो ये बादल भी गरजने लगे
पिता ने कहा बेटी अभी तो जाती है
इन आँशुओं को थोड़ा ठिठके रहने दे
ये जो अंसुवन की माला है
कभी घुटनों पर पड़ती थी
आज जो सीने पर पड़ी
तब यकीन आया
बेटी अब बड़ी हो चली
मैं भी जो रो दूँ
तो बच्ची को कौन सँभालेगा
चित्र-गूगल आभार 
थोड़ी देर और आँसू
मेरी आँखों में रह लेगा
मुझसे जो वो गले लगती है
मैं चुप हो जाने को कहता हूँ
वो एक एक कर सभी से मिलती है
शायद मुझे थोड़ा रूखा समझती है
आँसू शायद सभी ने बहाया था
एक शायद मैं ही था
जो उन्हें आँखों में समेट पाया था
दायित्व थे कुछ,मजबूर नहीं था
वो बस बेटी नहीं थी मेरा
वो मेरा गुरुर था
मैं हीरो था उसका
सो कमजोर कहाँ हो सकता था
और वो विदा हो चली
अब अश्रुजल चल पड़े थे
मैं एकांत कमरे में था
एक सख्त पिता की कमजोरी
आँसूओं का रूप ले चली थी
कि एक हाँथ मेरे कन्धे पर था
मैंने झट से आँसू पोंछे
पीछे मेरी गुड़िया खड़ी थी
कहा-गुड़िया अब बड़ी हो चली
आपकी कठोरता का पूरा आभास है मुझे
मैं भी आपको थोड़ा समझने लगी
सो ठिठक गयी थी
जो मेरे आँसू पोछते आये थे आप मेरे
आज आपके पोंछना चाहती हूँ
पापा!मैं आप सी होना चाहती हूँ
पापा!मैं विदा लेना चाहती हूँ।
©युगेश
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Monday, November 27, 2017

वो बगीचे का फूल

एक अनमना सा खयाल मन में आया
वो बगीचा का फूल है,या मुरझाया
स्मृति में मेरी अभी भी उसकी सुगंध है
क्या हुआ जो वो अब बदरंग है
उस मुरझाये फूल के निचले हिस्से में
पता है बीज हैं ढेर सारे
जो फूल ने मेरे लिए छोड़े हैं
अरे!उसे खयाल है जो मेरा
वो जानता था कि उसके झलक से
मेरा चित्त प्रशन्न हो जाता है
पर उसका एक समय था
छोटा था पर एक उद्देश्य था
उद्देश्य हमें ताज़गी देना
और जो गया तो दे गया
ढेर सारे बीज जो मैं बो दूं तो
हो जाएँगे ढेर सारे नन्हे पौधे
और भर देंगे मेरे बगीचे को
जो सजे होंगे ढेर सारे फूलों से
मुझे एक सिख मिली उस दिन
उस मुरझाते हुए फूल से
क्यूँ न हम भी बाँटे कुछ अच्छाइयाँ
जो बीज बनके लोगों के बीच
इस धरती के बगिया में रहें
जो हम न रहें
तो ये प्रेम गूँजेगा
एक सुकून सा मिलेगा
हाँ!वही सुकून जो कल-परसो
इसी फूल को देखकर मुझे मिला था।
©युगेश
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Monday, October 23, 2017

काफी समय हुआ तुमसे मिले हुए

काफी दिन हुए तुमसे मिले हुए
कुछ बातें करनी थी
लबों से नहीं
आँखों से करनी थी।
फोन,पत्र में वो आनंद कहाँ
जो एक-दूजे के हाथों में हाथ रख
बोलने मुस्काने और
तुम्हारे शर्मा जाने में है।
तुम्हारे दिए हुए फूल
मैंने अब भी सहेज कर रखे हैं
एक पुस्तक में,माना सूख गए
पर ताज़गी अब भी वही है।
पता है भावनाओं का सैलाब है
जिसे मैंने रोक रखा है
हौले से पास आना
कहीं टूट न पड़ें ये।
पत्तों की सरसराहट
जैसे हवा से तुम्हारे दुप्पट्टे का सरकना
बेखौफ उड़ना हवा में
और तुम्हारा उसे पकड़ना।
आज जो मिलना होगा हवा जोरों की है
जो उड़ जाए दुप्पटा सूखे पत्ते की तरह
फिक्र मत करना
मैं उन्हें फिर से हरा कर दूँगा।
यादों की हरी टहनियाँ
आज शुष्क हो चली हैं
चिंगारी अभी भी सीने में है
आज चलो अलाव जलायेंगे।
थोड़ा समय लेकर आना
यादों की लकड़ियाँ ढेर सी हैं
सो अलाव देर तक जलेगी
और सिहर जाएगी हमारी रूह।
क्योंकि,काफी समय हुआ तुमसे मिले हुए
और बातें,बातें ढेर सी करनी है।
©युगेश
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