Saturday, August 17, 2019

चूहे की व्यथा(व्यंग्य)

एक घर में एक चूहा और एक आदमी रहता है, ज्यादा समान खा जाने की वजह से वो आदमी उसे घर से निकाल देता है। चूहे की ओर से उसके विचार।ध्यान रहे सभी पात्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं।:-

चित्र - गूगल आभार 

      करीब एक साल का रिश्ता था हमारा।बड़े प्यार से वो मुझ पर हाथ फेरा करता था।मेरी चूँ चूँ में उसे शहनाई की आवाज़ सुनाई देती थी।पर आज वो शहनाई मानो टूटा हुआ तम्बूरा हो गया था।मेरे सुरीले स्वर की अब वो कद्र ही नहीं थी।खैर सुना था वह अब अपनी पत्नी की भी उतनी लल्लो-चप्पो नहीं करता।अब,इंसान की प्रवृत्ति ही ऐसी है।पर दिल तो मेरा तब टूटा जब मैं अपनी मधुर आवाज में गा रहा था"मेरा जीवन कोरा कागज़,कोरा ही रह गया।"
और तंज कसते हुए उसने गाया"सारा चावल चूहा खा गया,बोरा ही रह गया"
        भला किसी के खाने पर भी ऐसे कोई नज़र लगाता है।उसके बाद से मैंने अपने अंदर के सोनू निगम को गंजा तो नहीं पर गूंगा जरूर कर दिया।मेरा तनिक खाना उसे दिखता था पर अपनी कभी न लौट कर वापस आने वाली तोंद नहीं।इंसान की ये दूसरी बुरी आदत है कि उसे अपनी त्रुटियाँ नहीं दिखती।अब क्या करें।पर मुझसे भी गलती हुई जहाँ अपमान हो वहाँ नहीं रहना चाहिए।उसे मुझे निकालने से पहले मुझे ही निकल जाना चाइये था।खैर,गलतियाँ सबसे होती हैं,अब अखिलेश यादव को ही देख लो बुआ ने अपना बना कर बेगाना कर दिया।वैसे उदाहरण तो बहुत हैं पर मैं UP से हूं तो वहीं का उदाहरण सही लगा।पर मुझे ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है।नवीनीकरण और तकनीक ने इंसान को जितना आरामतलब और फरमाइशी बनाया है उतना हम चूहों को नहीं।हम तो आज भी सादा जीवन जीते हैं।कही भी रह लिया,कुछ भी खा लिया।कोई नुक्ताचीनी नहीं।मैंने बगल में ही सुरंग बनाई है।दिल टूटा है पर हाँ मैं हिसाब जरूर बराबर करूँगा।मुझे पता है वो इलाईची कहाँ रखता है।अब उसके चाय में वो इलाईची वाली खुशबू नहीं आएगी इसका उसे अंदाज़ा हो जाएगा।
©युगेश

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