आँखें मूँद इंसानियत जाने कहाँ सोती है
जीते जी मर जाता हूँ मैं जब मेरी बच्ची रोती है|
क्या कुछ नहीं बीता नाज़ुक सी उस जान पर
माँस के इस ढांचे में अब कहाँ वही बच्ची होती है।
छलनी-छलनी हो जाता जिगर मेरा,जब जिगर के टुकड़े से
कहाँ छुआ,कैसे हुआ ये तफ्तीश होती है।
कमाल है समाज,मुझे सोच पर तरस आता है
जुर्म करता है कोई और चेहरा मेरी बच्ची ढकती है।
हुजूम सा आया है सड़कों पर खबर है मुझे
अफ़सोस!ये सबकुछ हो जाने के बाद होती है।
हाल किसी ने न जाना,बस कौम पूछते रह गए
सियासत है जनाब,अफ़सोस ऐसी ही होती है।
गुरुर अब भी उतना हीं है,मुझे अपनी बच्ची पर
आदमी ही हूँ,कौम जिसकी बस एक पिता की होती है।
©युगेश
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चित्र - गूगल आभार |
क्या कुछ नहीं बीता नाज़ुक सी उस जान पर
माँस के इस ढांचे में अब कहाँ वही बच्ची होती है।
छलनी-छलनी हो जाता जिगर मेरा,जब जिगर के टुकड़े से
कहाँ छुआ,कैसे हुआ ये तफ्तीश होती है।
कमाल है समाज,मुझे सोच पर तरस आता है
जुर्म करता है कोई और चेहरा मेरी बच्ची ढकती है।
हुजूम सा आया है सड़कों पर खबर है मुझे
अफ़सोस!ये सबकुछ हो जाने के बाद होती है।
हाल किसी ने न जाना,बस कौम पूछते रह गए
सियासत है जनाब,अफ़सोस ऐसी ही होती है।
गुरुर अब भी उतना हीं है,मुझे अपनी बच्ची पर
आदमी ही हूँ,कौम जिसकी बस एक पिता की होती है।
©युगेश