Thursday, March 31, 2016

सोच दुरुस्त रखो


"भारत की एक खासियत रही है/जो है अनेकता में एकता/"unity in diversity" एक सोच जो हमें औरों से अलग करती है/ये बात हमे खुश रखती है/पर ये बात कुछ लोगों को खटकती भी है/अगर लोग एक रहे तो उनका जीवन यापन चले कैसे/ऐसे में जरुरत है अपनी अक्ल को इस्तेमाल करने की/आखिर कौन अपना है और कौन मतलब साधने को अपना बन हमारे आपसी भाईचारे को नुक्सान पहुँचाना चाहता है ये बात समझने और परखने की ज़रूरत है/इसलिए जरा सोच दुरुस्त रखिए............"


न योगी को सुना न ओवैसी को
मुझे और भी काम हैं
चित्र - गूगल आभार 
फ़िज़ूल वक़्त किसको
वो बोलते हैं
या बस बोल देते हैं
जीवन यापन कैसे चले 
चलो ज़हर घोल देते हैं
हम भी तो जनता हैं
मासूम से भोले-भाले
जिस पडोसी की मीठी सेवइयां चखी
जिस पडोसी के मीठे लड्डू चखे
वो फिर मुह खोल देते हैं
और हम भाईचारे को तौल देते हैं
थोडा रोष जरूर है लोगों से 
उनसे नहीं अपने लोगों से
एक अपील है सबसे
विचार कीजिये तब व्यवहार कीजिये
याद है कभी अंग्रेज़ आये थे
मालूम होता है की
ये कुछ नस्लें उनसे प्रभावित हैं
सोच अपनी दुरुस्त रखो
वो बोलते ही रहेंगे
तुम अपनी बात रखो
अरे इतने साल से पडोसी थे
अखलक को न समझ पाये
और वो जिन्हें जानते भी नही
उन्हें अपना रहनुमा मत समझो
बड़ी पुरानी सभ्यता है हमारी
फ़िज़ा में रंग सदभाव का रहा हैं
हमें तो गुलाब की तरह महकने की आदत है
काँटों से भला कौन डरा है/
(c)युगेश 
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Sunday, February 14, 2016

प्यारी

मीलों दूर सही पर दूर नहीं
मजबूर सही मगरूर नहीं    
तेरे पायल की छम-छम प्यारी
दो पल का सुना मंजूर नहीं/
इस दिल के सुने उपवन में
कुछ फूल खिले दो-चार खिले
उन पर इस भँवरे का आना
प्यारी मेरा कोई दोस नहीं/
क्या कपट किया क्या गुनाह किया
मेरे दिल को तू हर लायी थी
फिर भी हमने हाँथ बढ़ाया
और प्यारी तू घबराई थी/
ये संजीदा दिल चीत्कार गया
दिल अपना तुझपर हार गया
न शोर हुई न ग़दर हुआ
प्यारी मुस्काई और कतल हुआ/
कुछ अपने भी अफ़साने थे
कुछ अपने थे कुछ बेगाने थे
बेगानों में अपना पाया था
प्यारी पाकर जी हरषाया था/
कुछ कहना था कुछ सुनना था
मैं बोल गया तू भाग गयी
मैं खोया था असमंजस था
फिर प्यारी मुड़ी और मुस्काई/
पल वो भी बिलकुल ठहरा था
दिल का घाव जो गहरा था
प्यारी मरहम बनकर आई थी
सावन की झड़ी लगाई थी/
बारिश की हर वो बून्द तेरे चेहरे पर
श्रृंगार करेगा क्या सोना
तुझे देख उस दिन मैंने जाना
प्यारी,क्या खूब है सावन का होना/
याद है मुझको भी वो क्षण
तू बाँहों में ऊपर नील गगन
दूर जाने की बारी आई थी
प्यारी तू घबराई थी/
मेरे लिबास पर तेरे आँखों का मोती
बोल गया आखिर क्यों रोति
एहसास दिलाया फिर उसको
प्यारी प्यार करूँ मैं केवल तुझको/
हांथों में फिर हाँथ लिये
आना मुझको वापस यहीं प्रिये
और कहने को जो बात रही
कह देता हूँ आज वही
तेरे पायल की छम-छम प्यारी
दो पल का सुना मंजूर नहीं/
तेरे पायल की छम-छम प्यारी
दो पल का सुना मंजूर नहीं/
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Monday, February 1, 2016

ब्रह्माजी की दुविदा

"हम लोग भी अजीब हैं,पैदा हुए तो इंसान थे,फिर कुछ हिन्दू हो गए कुछ मुसलमान/इस पर भी मन न माना  तो कुछ क्षत्रिय,ब्राह्मण,वैश्य,शूद्र,शिया,शुन्नी हो गए/पर हम मानव है धरती पर सबसे चालक सबसे समझदार/हाँ,कभी कभी दिखावे में,बहकावे में आ जाते हैं पर इतना तो चलता है/ खैर इतने समझदार थे सो कुछ शर्माजी,गुप्ताजी नजाने क्या-क्या बन गए(नोट -सभी पात्र एवं घटनाये काल्पनिक हैं :D ) /फिर शुरु हुई राजनीती/हाँ भाई अब आने वाला था मज़ा/मैंने सोचा ऐसी स्तिथि स्वर्ग में होती तो कैसा होता और इसी सोच में बन गयी एक और कविता.... "

कुछ यूँ हुई थी दिन की शुरुवात
परिणाम आया अभियांत्रिकी प्रवेश परीक्षा का 
और शर्माजी के बच्चे हुए फ्लैट 
शर्माजी झल्लाए और मुन्ने पर चिल्लाये
फिर धीरे से बोले थोड़ा संकुचाए 
बगलवाले गुप्ताजी के बेटे क्या कुछ कर पाये 
सुपुत्र बोले बड़े नाज़ थे 
पापा मैंने आपका मान बढ़ाया था 
और गुप्ताजी का बेटा मुझसे भी पीछे आया है
फक्र हुआ उन्हें मुन्ने पर 
मुन्ना बगलवाले से तो आगे बढ़ पाया था 
मूँछ हुई उनकी ऊँची 
जो मुन्ने के कहने पर मुंडवाया था 
फक्र से घूमूँगा मैं तो अब 
शर्माजी थे सोच रहे 
पर कहाँ दाखिला करवाएं मुन्ने का 
इस कौतुहल से जूझ रहे 
सर पीट रहे थे ब्रह्माजी 
देख शर्माजी का पागलपन 
बोल उठे देखो सरस्वती  
क्या उचित दिखावे का बंधन 
बस टोक दिया सरस्वतीजी ने
कहा आपको न आगे कुछ कहना है 
शर्माजी हो या गुप्ताजी 
साथ किसी का न देना है 
धरती से प्रेरित होकर लोग यहाँ 
अब झुण्ड बना घुमा करते हैं 
संभल कर कहना कुछ 
वरना बड़ा अनर्थ हो जाएगा 
पता चला है गुप्त सूत्रों से 
कितने सारे बैनर लोगों ने बनवाए हैं  
पता चला है नारदजी 
आजतक से होकर आये हैं 
स्तब्ध हो गए ब्रह्माजी 
देख नारी की पीड़ा 
किसने डाला इन लोगों में 
ये जाती का कीड़ा 
की तभी हुई आवाज़ कुछ 
ब्रह्मा का शिंहासन था डोल गया 
पता चला बंगले के सामने से कोई 
रैली करके चला गया 
ठीक कहा था सरस्वतीजी ने
बिलकुल सही था अंदेशा 
गुप्तजी के यूनियन ने 
मीडिया तक पहुँचाया था संदेसा 
भयभीत हुए तब ब्रह्माजी 
देख नयी राजनीती 
बस अपना मतलब साधने को 
बनती कैसी कैसी रणनीति 
बोल उठे देखो सरस्वती 
अब मैं राजनीती से सन्यास लूंगा 
और कह देना विष्णु शिव को 
अगले त्रिदेव चुनाव से 
मैं अपना नाम वापस लूंगा/
©युगेश

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Tuesday, December 15, 2015

भूकम्प

कुछ दिन पहले हिंदी पखवाड़ा के अवसर पर ऑफिस में काव्य-लेखन प्रतियोगिता हुई/ हमे एक चित्र दी गयी जिसमे भूकम्प का दृश्य था और हमें एक घंटे में उस पर एक कविता लिखनी थी /कलम को चलने का बहाना मिल गया था/पर कुछ लिखने से पहले जरुरी है उसको जीना /भूकम्प या कोई भी आपदा कुछ ही पल में ऐसा कोहराम मचाती है जिसके चपेट में शहर के शहर बर्बाद हो जाते हैं /नाजाने कितने परिवार बिखर जाते हैं ......


अहो ! देखो ये क्या हो गया
कुछ क्षण पहले तो सब ठीक था
अचानक ये क्या हो गया
प्रकृति का प्रकोप कहूँ या
मानव जनित त्रासदी
जो भी हो पर क्षण भर में
ही सबकुछ बर्बाद हो गया /

कल ही जिद की थी
सोनू ने पिता से साथ
कहीं घूमने को जाने की
सुबह हुई नहीं की
सबकुछ खाक हो गया
और छोटा सा परिवार
बस यूँ ही बर्बाद हो गया /

अजब था प्रकृति का खेल भी
कोई भेदभाव भी नहीं हुआ
हिन्दू हो या मुस्लमान
बराबर सब पर वार किया
टूटी इमारतें,बिखरे थे परिवार
प्रकृति लेकर आई थी
कुछ ऐसा शैलाब /

भूकम्प भी साथ मानों
एक संदेश लेकर आया था
बस कर ऐ मनुज
वह भलिभांति कह पाया था
सुचना अचूक थी
चारों ओर कुख थी
बिखर चूका था जीवन आधार
इस प्रकार प्रकृति ने जताया था आभार /

सीख़ बहुत बड़ी थी
और सीख़ की कीमत भी
पर एक खूबसूरती भी थी
इस विषम परिदृश्य में
अपनों का पता न था
पर गैरों को संभाल रहे थे
मानव तो हम पहले भी थे
अब इंसान नज़र आ रहे थे /                                  
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Wednesday, November 11, 2015

लेहरें

"कोलकाता में हुगली नदी में  दोस्तों के साथ नाव की सवारी करते हुए नदी में हिचखोले खाते लहरों को देखा ,लेहरें जो आज़ाद थी मानो हमारे बचपन की नुमाईंदगी कर रही थी और अनायास ही चल उठी ये कलम कहने को ये बातें "

लेहरें कुछ कह रहीं थी
ठहरने की कोई गुंजाईश न थी
बस बढ़ते जाना था
साहिल की ओर
कुछ का छूट जाना था
तो कुछ नए का मिल जाना
हम तो बस कश्ती में बैठे थे
बस चल रहे थे
बाकियों के साथ बाकियों की तरह
पर लेहरें भिन्न थी
वो आज़ाद थी
कोई ठौर नहीं था
जब मन करता लहरा उठती
और कभी अपनी अठखेलियों
का आनंद लेने बिलकुल शांत
होकर विचार करती
मैं सोच में था
ऐसा तो मेरा बचपन था
बिलकुल ऐसा ही चंचल
ऐसा ही  मदमस्त
अफ़सोस ! बचपन तो बीत चूका था'
या यहीं कहीं दुबक कर बैठा था
मेरे ही अंदर गुमसुम गुमनाम
अचानक किसी ने मुझपर पानी फेंका
बोला क्या कर रहे हो
मैंने भी नदी का पानी उसपर मारा
बोला बचपन जी रहा हूँ।
©युगेश
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Thursday, September 3, 2015

बोल उठी यादें मेरी

मेरी यादें अक्सर मुझसे कहती हैं
तेरी यादों के लिए वो तरसती हैं
कल चल रहा था बाग़ में बस यूँ ही भटकते
पूछ बैठे फूल आखिर क्यों हो खोये रहते
कुछ कह न पाया कुछ न कहना चाहा
बस दबी सी मुस्कराहट हीं थी
और बोल उठी यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
आज फूल हांथों में
कल हाँथ तेरा था
क्या खूबसूरत थी
क्या रंग सुनहरा था
महताब की मोहताज़ शायद चांदनी होगी
पर इस दिल की कोठी बस तुझसे ही रोशन थी
और बोल उठी  यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
सुन रखा था लोगों से की प्यार सच्चा है
तुझसे मिलकर जान पाया सच्चाई कितनी थी
इस दिल के घने जंगलों को चीरती
जो झिलमिल सी रौशनी थी
एहसास होता आज मुझको
तेरी ही रेहमत थी
और बोल उठी यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
क्या कहना चाहा,क्या कह न पाया
ये बातें ही ओझल थी
जिसे देखकर धड़कन बड़ी
वो तू थी पगली लड़की
मुखौटा मुस्कराहट का चेहरे पे रक्खा था
भावनाओं का शैलाब जिसने रोक रक्खा था
जहाँ तू बढ़ चली आगे वो राह तेरी थी
और बोल उठी यादें मेरी
तेरी यादों को वो तरसती /
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Sunday, August 30, 2015

तो शायद प्यार ना होता

बड़ा मुश्किल है कहना
पर वो बोल रही थी
जो इतना आसान होता
तो शायद प्यार ना होता/
मुक़र्रर की थी मैंने
अगले हफ्ते की तारीख़
इतने दिनों में बोल ना सका
अब कैसे कह जाता/
बहुत हीं  मिन्नतें माँगी
मैंने उस खुदा  से
पर जो जल्दी सुन लेता
तो शायद खुदा न होता /
मैंने पूछा कब मिलोगी
कुछ बिना बोले हंस कर भाग गई
बस यही अनकहीं बातें तो हैं
वरना इंतज़ार पर ऐतबार न होता /
उसने पूछा मुझसे प्यार क्यों हुआ
मैंने कहा तुम्हे देखा तुम्हे समझा
महसूस किया,जो एकबार में हो जाता
तो शायद प्यार न होता/
वो बोल उठी बहुत बातें बनाते हो
मैंने कहा इन बातों में तुम ही तो होती हो
जो तुम ना होती
तो शायद ये बातें ना होती/
बस शर्मा उठी वो
मैंने हौले से हाँथों को पकड़ा
जो ये मासूमियत ना होती
तो शायद प्यार पर ऐतबार ना होता/

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