अंतर्द्वन्द जो सीने में बसा
औचित्य जीवन का मैं सोचता
यहाँ हर कोई मुझे पहचानता है
मैं पर खुद में खुद को ढूंढता
साँस चलती हर घड़ी
प्रश्न उतने ही फूटते
जो सपने बनते हैं फ़लक पर
धरा पर आकर टूटते
कुंठित होकर मन मेरा
मुझसे है आकर पूछता
जिसने देखे सपने वो कौन था
और कौन तू है ये बता
रो-रो कर मुझसे बोलती है
मानव की ये त्रासदी
वो बनना चाहता है कुछ
और बन निकलता और कोई
कौतुहल विचारों में
एक सैलाब जिसे मैं रोकता
जो हारता न किसी और से है
वो बस स्वयँ से हारता
मझधार में कश्ती हमारी
एक सवाल हमसे पूछती
इस ठौर चलूँ उस ठौर चलूँ
मन को हमारे टटोलती
विचार कर जो एक तो
आज या कल मंज़िल को मैं पाऊँगा
वरना यही मझधार है,कस्ती यही है
शायद अनचाही मंज़िल यही
कल मैं औरों को,खुद को
बस कोसता ही जाऊँगा/
©युगेश
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औचित्य जीवन का मैं सोचता
यहाँ हर कोई मुझे पहचानता है
मैं पर खुद में खुद को ढूंढता
साँस चलती हर घड़ी
प्रश्न उतने ही फूटते
जो सपने बनते हैं फ़लक पर
धरा पर आकर टूटते
कुंठित होकर मन मेरा
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चित्र-गूगल आभार |
जिसने देखे सपने वो कौन था
और कौन तू है ये बता
रो-रो कर मुझसे बोलती है
मानव की ये त्रासदी
वो बनना चाहता है कुछ
और बन निकलता और कोई
कौतुहल विचारों में
एक सैलाब जिसे मैं रोकता
जो हारता न किसी और से है
वो बस स्वयँ से हारता
मझधार में कश्ती हमारी
एक सवाल हमसे पूछती
इस ठौर चलूँ उस ठौर चलूँ
मन को हमारे टटोलती
विचार कर जो एक तो
आज या कल मंज़िल को मैं पाऊँगा
वरना यही मझधार है,कस्ती यही है
शायद अनचाही मंज़िल यही
कल मैं औरों को,खुद को
बस कोसता ही जाऊँगा/
©युगेश
Very real life poetry.
ReplyDeleteThank you :)
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