Wednesday, November 11, 2015

लेहरें

"कोलकाता में हुगली नदी में  दोस्तों के साथ नाव की सवारी करते हुए नदी में हिचखोले खाते लहरों को देखा ,लेहरें जो आज़ाद थी मानो हमारे बचपन की नुमाईंदगी कर रही थी और अनायास ही चल उठी ये कलम कहने को ये बातें "

लेहरें कुछ कह रहीं थी
ठहरने की कोई गुंजाईश न थी
बस बढ़ते जाना था
साहिल की ओर
कुछ का छूट जाना था
तो कुछ नए का मिल जाना
हम तो बस कश्ती में बैठे थे
बस चल रहे थे
बाकियों के साथ बाकियों की तरह
पर लेहरें भिन्न थी
वो आज़ाद थी
कोई ठौर नहीं था
जब मन करता लहरा उठती
और कभी अपनी अठखेलियों
का आनंद लेने बिलकुल शांत
होकर विचार करती
मैं सोच में था
ऐसा तो मेरा बचपन था
बिलकुल ऐसा ही चंचल
ऐसा ही  मदमस्त
अफ़सोस ! बचपन तो बीत चूका था'
या यहीं कहीं दुबक कर बैठा था
मेरे ही अंदर गुमसुम गुमनाम
अचानक किसी ने मुझपर पानी फेंका
बोला क्या कर रहे हो
मैंने भी नदी का पानी उसपर मारा
बोला बचपन जी रहा हूँ।
©युगेश
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