ज़िम्मेदारियाँ सवाल करती हैं
कुछ सहज कुछ असहज
मैंने असहज सवाल चुने
आज मैं अकेला खड़ा हूँ
सहजता देख मुस्कुरा रही है
ज़िम्मेदारियाँ संकुचित हैं
एक एक पाए टूट रहे हैं
जब भार कंधे पर हो
तो पहले कमर टूटती है
जब घर पर छत नहीं होती
तो बारिश भीतर होती है
मैंने छतरी खो दी है
मुझे अब भींगना है
मैंने जो तिरपाल बाँधे थे
वो असहज होकर निकल गए
मुझे घबराहट है अनहोनी की
अफसोस! यही वास्तविकता है।
©युगेश
चित्र - गूगल आभार |