Friday, November 20, 2020

पाँच सौ का एक नोट

वोट की कीमत
नहीं आँकी जा सकती
इसमें स्वाभिमान है
संविधान का सम्मान है
कहते हैं शिक्षाविद
लेकिन विधिवत शिक्षा
पहुँचती कहाँ है लोगों तक
न पहुँचते है शिक्षाविद
और भूख स्वतः जागृत होती है
जैसे वोट का अधिकार
हर पाँच साल के पार
लिए पार्टी का झंडा
अधनंगा पहने एक लंगोट
कहता है फलाँ जिंदाबाद
अपने भविष्य का गला घोंट
पता है कितने का एक वोट
बस! पाँच सौ का एक नोट।
©युगेश

चित्र - गूगल आभार 


 

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Saturday, September 26, 2020

*आज की ताजा खबर*

आज की ताज़ा खबर
मीडिया की पैनी नज़र
सवाल करती, चीखती, गुर्राती
कभी अपने कमीज की बाहें तानकर
तो कभी आँखें गुरेरकर
कहती, ये सच है
और हम मान भी लेते
पर नहीं मानता वो आदमी
जो सड़क पर बेतहाशा चला जा रहा है
तो उस जुझारू पत्रकार ने पूछ लिया
आपकी इस घटना पर क्या प्रतिक्रिया है
वो आदमी चुप रहा
चलता रहा
और न ही रुकी मीडिया
पूछती रही
पर जवाब कोई न मिला
पर स्तम्भ इतना भी कमजोर नहीं होता
उसने झकझोरा उसे
कहा क्या तुममें आत्मीयता नहीं
या नहीं है दया
या नहीं जानते जो चला गया
उसे इंसाफ नहीं मिला
वो आदमी मुस्कुराया
एक चिट्ठी उसके हाथों में दी
और कूद गया पूल से
मीडिया ने कहा बड़ा बेवकूफ आदमी था
और फेंक दी चिठ्ठी
चिठ्ठी उड़ते हुए कैमरे के ग्लास पर जा टिकी
लिखा था "भूख"
खैर, कैमरा On नहीं था
या On नहीं किया गया?
पता नहीं
किसी ने आँखें नहीं तरेरी
न ही कमीज़ की बाहें तानी
सब सच्चे मुद्दे दिखाने में व्यस्त थे।
©युगेश

चित्र - गुगल आभार

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Saturday, September 12, 2020

*मज़ा आ रिया है*

स्थिति चिंताजनक है
देश की नहीं, देशवासियों की।
पत्रकारिता एक ठूंठ पर बंधी
बकरे के जैसी मिमिया रही है।
पूछ रही है हो क्या रिया है
पर कोई बोल नहीं रिया है।
बोल भी दे तो सुने कैसे
इतना शोर जो हो रिया है।
संभावनाएँ असीम हैं
पर TRP ये सब करा रिया है।
देश संकट में है पर
अपने को इसी में मज़ा आ रिया है।
"बकरे" के स्वामी गो लोग आजतक
काहे को चिल्ला रिया है।
अपने को ज्यादा समझ नहीं आता
पर मज़ा बहुत आ रिया है।
बहुत सन्नाटा है instagram पर
workout का video नहीं आ रिया है।
भोले बाबा के भक्त सभी हैं यहाँ पर
पर कोई क्यूँ अब नहीं बता रिया है।
भोलेबाबा आसमान से बोले
Naughty बालक मुझे क्यूँ फंसा रिया है।
देश में और भी विपदाएँ हैं
वो कोई क्यूँ नहीं बता रिया है।
भारत के घर पे चार खम्बे थे
कभी कोई उखाड़ रिया है,कभी कोई लगा रिया है।
©युगेश 

चित्र - गूगल आभार 


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Sunday, August 23, 2020

चम्पा का फूल

शाम जब डूबता है सूरज
तो रात के साए में
कोपलें फूटती हैं आसमान की
और निकलते हैं तारे
मैं उन फूलों को एक पहर
देख खुश नहीं हो पाता
मुझे चम्पा का फूल पसंद है
जो बिखेरता है खुशबू
जिसे न उजाले से डर लगता है
न जिसे अंधेरे की पनाह पसंद है
वो जो उन्मुक्त है
और जो शोर करता है
अपनी भीनी खुशबू से
और कहता है मैं हूँ
मेरा अस्तित्व है
मुझे ऐसा ही प्रेम चाहिए
तुम मेरे जीवन का सितारा
बन सको या न बन सको
हाँ,पर चम्पा का फूल
जरूर हो जाना।
©युगेश

चित्र - गूगल आभार



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Thursday, August 13, 2020

इंसाफ का दायरा थोड़ा बड़ा हो जाता

इंसाफ का दायरा थोड़ा बड़ा हो जाता

इल्जाम बस सियासतदानों पर न आता।


अमूमन भरोसा तो है इंसाफ के ढाँचे पर

चढ़ने को पैसे लगते हैं, मैं दे कहाँ पाता।


पथरीली जमीन है, गड्ढे हैं सड़क पर

वो गाड़ी से चलते हैं, मैं चल कहाँ पाता।


बड़ी मुश्किल से पहुँचा मैं ढाँचे के अर्श पर

जो बैठा है, मुजरिम है, इंसाफ कर कहाँ पाता।

©युगेश 

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Wednesday, July 1, 2020

क्या बचा बाद पतझड़ के

कुम्हलाई बयार के आगोश में झाँक कर देखो
क्या बचा बाद पतझड़ के झाँक कर देखो।
मौसम बदलेगा, पत्ते आएँगे, फिज़ा बदल जाएगी
तेरे बाद मुझमें क्या रह जाएगा झाँक कर देखो।
हर मौसम नहीं लगता फल इन शाखों पर
मुफलिसी बतलाती है साथी, आँक कर देखो।
लोग बदलते हैं रिश्ते, एक सा अच्छा नहीं लगता
चाँद क्यूँ बदलता है रूप, हाँक कर देखो।
सफलता की ज़मीन में फिसलन बहुत है
संभालना हो तो जड़ों को झाँक कर देखो।
©युगेश
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Thursday, June 18, 2020

अवसाद की लकीरें

सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। मैं Nepotism की बात नहीं करना चाहता क्यूँकि उसपर काफी लोग टिप्पणी कर चुके हैं। गुस्सा लोगों का जायज़ है पर उसे एक खास वर्ग तक सीमित कर लोगों ने खुद को तस्सली दे दी। पर जितना गुस्सा दिखा, थोड़ी अपने अंदर झांकने की भी जरूरत थी। क्या हम अपने आस-पास रहने वालों के साथ सहानुभूति रखते हैं?
क्या हमारा व्यवहार उनलोगों के प्रति अच्छा होता है जो अवसाद के शिकार होते हैं? क्या कई बार हमारा अनुचित व्यवहार लोगों को अवसाद में धकेल नहीं देता?
जितनी संवेदनशीलता हम किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए दिखाते हैं उसका चंद प्रतिशत भी अपने आस पास लोगों के साथ दिखाएँ तो काफी समस्या हल हो सकती है। मानसिक रोग या अवसाद एक सच्चाई है जिसे समझने की ज़रूरत है। अच्छा बर्ताव ही इसका हल है क्योंकि सामने वाले व्यक्ति को खुद की स्तिथि को समझना समझाना इतना आसान नहीं होता।

लोगों से मिलना हो तो जाता है
पर क्यूँ मैं मिल नहीं पाता
कहना तो बहुत कुछ चाहता हूँ
पर क्यूँ कुछ कह नहीं पाता
एक समंदर है सीने में
जिसे मैं तैर जाना चाहता हूँ
मुझे तैरना तो आता है
पर क्यूँ मैं तैर नहीं पाता
मेरी उंगली थाम कर
किनारे ले आओ मुझे
मैं हाथ बढ़ाना चाहता हूँ
पर क्यूँ मैं बढ़ा नहीं पाता
ललाट पर लकीरें लंबी हो चली हैं
अब फैलना चाहती हैं
गले में, कलाई में, नसों में
पर क्यूँ? मैं सोच नहीं पाता
एक ख्वाब, चंद पैसे या अपना कोई
एक उम्र हर रोज़ जीता कोई
चादर की बेतरतीब सिलवटें बताती हैं
रात भर करवटें बदलता कोई।
©युगेश
किचित्र - गूगल आभार
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