सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। मैं Nepotism की बात नहीं करना चाहता क्यूँकि उसपर काफी लोग टिप्पणी कर चुके हैं। गुस्सा लोगों का जायज़ है पर उसे एक खास वर्ग तक सीमित कर लोगों ने खुद को तस्सली दे दी। पर जितना गुस्सा दिखा, थोड़ी अपने अंदर झांकने की भी जरूरत थी। क्या हम अपने आस-पास रहने वालों के साथ सहानुभूति रखते हैं?
क्या हमारा व्यवहार उनलोगों के प्रति अच्छा होता है जो अवसाद के शिकार होते हैं? क्या कई बार हमारा अनुचित व्यवहार लोगों को अवसाद में धकेल नहीं देता?
जितनी संवेदनशीलता हम किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए दिखाते हैं उसका चंद प्रतिशत भी अपने आस पास लोगों के साथ दिखाएँ तो काफी समस्या हल हो सकती है। मानसिक रोग या अवसाद एक सच्चाई है जिसे समझने की ज़रूरत है। अच्छा बर्ताव ही इसका हल है क्योंकि सामने वाले व्यक्ति को खुद की स्तिथि को समझना समझाना इतना आसान नहीं होता।
लोगों से मिलना हो तो जाता है
पर क्यूँ मैं मिल नहीं पाता
कहना तो बहुत कुछ चाहता हूँ
पर क्यूँ कुछ कह नहीं पाता
एक समंदर है सीने में
जिसे मैं तैर जाना चाहता हूँ
मुझे तैरना तो आता है
पर क्यूँ मैं तैर नहीं पाता
मेरी उंगली थाम कर
किनारे ले आओ मुझे
मैं हाथ बढ़ाना चाहता हूँ
पर क्यूँ मैं बढ़ा नहीं पाता
ललाट पर लकीरें लंबी हो चली हैं
अब फैलना चाहती हैं
गले में, कलाई में, नसों में
पर क्यूँ? मैं सोच नहीं पाता
एक ख्वाब, चंद पैसे या अपना कोई
एक उम्र हर रोज़ जीता कोई
चादर की बेतरतीब सिलवटें बताती हैं
रात भर करवटें बदलता कोई।
©युगेश
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किचित्र - गूगल आभार |
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