इंसाफ का दायरा थोड़ा बड़ा हो जाता
इल्जाम बस सियासतदानों पर न आता।
अमूमन भरोसा तो है इंसाफ के ढाँचे पर
चढ़ने को पैसे लगते हैं, मैं दे कहाँ पाता।
पथरीली जमीन है, गड्ढे हैं सड़क पर
वो गाड़ी से चलते हैं, मैं चल कहाँ पाता।
बड़ी मुश्किल से पहुँचा मैं ढाँचे के अर्श पर
जो बैठा है, मुजरिम है, इंसाफ कर कहाँ पाता।
©युगेश
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Awesome bhai
ReplyDeleteGood brother ....
ReplyDeleteNyc
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