बाँध सकूँ नभ नयनों में
हृदय द्रवित जब होता है
स्मृति-मंथन के हलाहल को
शिव बन कौन फिर पीता है।
पाषाण शेष है इस उर में
मंदराचल कौन फिर ढोता है
धीरता है नेती उसकी
वो घिसता है पर जीता है।
छलक हलाहल सर्प बने
प्रेम तरल जब गिरता है
मेरे निहित मुझसा कोई
बिखरा बिखरा पर रीता है।
संतोष सरल अमृत पर्याय
कहाँ सुलभ हो पाता है
तृष्णा बन मोहिनी आती है
अमृत कंठ ठहर फिर जाता है।
जीवन समुद्र मंथन सदृश
विष है तो रत्न भी आता है
कच्छप बन संतुलन साध
वो जीता है जो जि ता है।
©युगेश
👌👌😊😊
ReplyDeleteप्रेरणादायक 💛
ReplyDeleteमंत्रमुग्ध करने वाली रचना ।
ReplyDelete🙏🙏
ReplyDelete