सिगरेट सुलगाते हुए एक कश लगाया
समझ नहीं आया
धुआँ मेरे अंदर ज्यादा था या सिगरेट में
हवा में उड़ते धुएँ को देख लगा
भीतर का धुआँ बाहर आ रहा है
अफ़सोस! ग़लतफ़हमी थी
सुकून की तलाश में इंसान पागल हो जाता है
मैं भी हो गया था
आस्था पर कोई सवाल नहीं उठाता
मैंने भी नहीं उठाया
मेरे अंदर का ही धुआँ हो शायद
इसके सुलगने से हो-हल्ला नहीं होता
होता तो तब भी नहीं
जब बस्तियाँ सुलगती हैं
पर, ग़म से इतना सरोकार नहीं रखता
उसे मिटाने से रखता हूँ
सो उड़ा देता हूँ हर एक छल्ले में
पर ये छल्ले साले खत्म नहीं होते
न ये जलन कम होती है
बहुत बोझ है साला सपनों का
मैंने उस छोटू से कहा
एक कड़क चाय ले आना
और एक goldflake भी बड़ी वाली।
©युगेश
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